अरस्तु का त्रासदी सिद्धांत
अरस्तु, जिन्हें विश्व के महानतम दार्शनिकों में से एक माना जाता है, ने साहित्य, दर्शन, और विज्ञान के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण योगदान दिया है। उनके साहित्यिक योगदान में “पोएटिक्स”(काव्यशास्त्र) का विशेष स्थान है। उन्होंने काव्य की रचना, संरचना और प्रभाव-तीनो पक्षों पर अपने इस पुस्तक में विचार किया है, किन्तु जितना विचार उन्होंने त्रासदी की संरचना पर किया, उतना किसी अन्य विषय पर नहीं. पश्चिम में त्रासदी का सर्वप्रथम विवेचन यूनान में हुआ. क्योंकि वहीं उनका सर्वप्रथम सर्वांगीण विकास हुआ. इसी कृति में उन्होंने त्रासदी के सिद्धांत को विस्तारपूर्वक प्रस्तुत किया है।
उनका त्रासदी सिद्धांत न केवल प्राचीन यूनानी साहित्य को समझने के लिए महत्वपूर्ण है, बल्कि यह आज भी नाटक और साहित्य के अध्ययन में उपयोगी है। अरस्तु से पूर्व प्लेटो ने भी त्रासदी पर अपने विचार प्रकट किये है, लेकिन अरस्तु वह पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने त्रासदी का गंभीर विवेचन किया. प्लेटो ने काव्य का वर्गीकरण करते हुए त्रासदी और कामदी दोनों के सम्बन्ध में अपना मंतव्य प्रस्तुत किया है. इसके अनुसार त्रासदी महाकाव्य से निम्नकोटि का माना जाना चाहिए. वहीं अरस्तु के विचार इस सम्बन्ध में कुछ भिन्न होने के कारण उन्होंने अपने गुरु प्लेटो के त्रासदी विवेचन का खंडन कर अपने त्रासदी सिद्धांत की स्थापना की.
अरस्तु ने त्रासदी की परिभाषा देते हुए कहा है कि – ”त्रासदी किसी गंभीर स्वतः पूर्ण तथा निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है, जिसका माध्यम नाटक के भिन्न-भिन्न भागों में भिन्न-भिन्न रूप में प्रयुक्त सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत भाषा होती है, जो समाख्यान रूप में न होकर कार्य-व्यापार रूप में होती है और जिसमें करुणा तथा त्रास के उद्रेक द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है।”
त्रासदी की परिभाषा
अरस्तु के अनुसार, त्रासदी एक गंभीर, संपूर्ण और महत्वपूर्ण कथा है, जो सुगठित संरचना के माध्यम से प्रस्तुत की जाती है। इसका उद्देश्य दर्शकों में “कैथार्सिस” (भावनाओं का परिशोधन) उत्पन्न करना है। अरस्तु ने त्रासदी को मानव जीवन की दु:खद और संघर्षपूर्ण घटनाओं का चित्रण माना है, जो पाठकों या दर्शकों के भीतर भय और करुणा जैसे भावों को जागृत करता है। डॉ. नगेन्द्र के मत में- ”त्रासदी की इस परिभाषा के अनुसार कहा जा सकता है कि त्रासदी दृश्य-काव्य का एक भेद है। इसकी कथावस्तु गंभीर होती है। इसका एक निश्चित आयाम होता है और यह अपने आप में पूर्ण होती है, अर्थात इसमें जीवन के गंभीर पक्ष का चित्रण होता है। त्रासदी के मूल भाव करुणा और त्रास होते हैं। इन भावों को उदबुद्ध पर विरेचन पद्धति से मानव-मन का परिष्कार त्रासदी का मुख्य उद्देश्य हैं। त्रासदी की शैली भावपूर्ण और अलंकृत होती हैं।”
त्रासदी के मुख्य घटक
अरस्तु ने त्रासदी के अंगों का विवेचन संरचनात्मक-विश्लेषणात्मक पद्धति से किया है। उन्होंने त्रासदी के 6 अनिवार्य अंग स्वीकार किये है:-
१) कथानक(plot)
२) चित्रण(charcter)
३) पदावली(diction)
४) विचार(thought)
५) दृश्य-विधान(visual principles)
७) गीत(song)
इनमे से कथानक,चरित्र और विचार अनुकरण के विषय है, दृश्य-विधान अनुकरण की पद्धति है और पदावली और गीत अनुकरण के मथ्यम है।
त्रासदी के अंगों को अगले आर्टिकल में विस्तार पूर्वक समझाया गया है. आप इसपर क्लिक करके वह पढ़ सकते हैं – अरस्तु का त्रासदी सिद्धांत (भाग 2)
त्रासदी का उद्देश्य: कैथार्सिस
अरस्तु के त्रासदी सिद्धांत का सबसे प्रमुख पहलू “कैथार्सिस”(विरेचन) है। यह एक ग्रीक शब्द है, जिसका अर्थ है “शुद्धि” या “परिशोधन”। अरस्तु के अनुसार, त्रासदी का उद्देश्य दर्शकों की भावनाओं को जागृत करना और उनके भीतर संचित भय और करुणा को बाहर निकालना है। इस प्रक्रिया के माध्यम से, दर्शक एक गहन भावनात्मक और मानसिक शुद्धि का अनुभव करते हैं।
त्रासदी में नायक की भूमिका
अरस्तु ने त्रासदी के नायक को “महान” और “त्रुटिपूर्ण” के समन्वय के रूप में देखा है। नायक को ऐसा होना चाहिए जो समाज में उच्च स्थान रखता हो, लेकिन उसके भीतर कोई न कोई त्रुटि (हैमर्टिया) हो। यह त्रुटि उसके पतन का कारण बनती है और कथा को त्रासद बनाती है।
अरस्तु के त्रासदी सिद्धांत की प्रासंगिकता
अरस्तु का त्रासदी सिद्धांत प्राचीन यूनानी नाटकों तक ही सीमित नहीं है। यह सिद्धांत आज भी नाटकों, फिल्मों और साहित्य में त्रासदी के तत्वों को समझने के लिए उपयोगी है। शेक्सपियर के नाटकों से लेकर आधुनिक सिनेमा तक, अरस्तु के विचारों की झलक स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है।
निष्कर्ष
अरस्तु का त्रासदी सिद्धांत साहित्य और नाटक के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण मील का पत्थर है। उनके विचार न केवल त्रासदी को परिभाषित करते हैं, बल्कि साहित्य के माध्यम से मानव जीवन की जटिलताओं और भावनाओं को समझने का मार्ग भी प्रदान करते हैं। उनका “कैथार्सिस” का सिद्धांत यह दिखाता है कि त्रासदी केवल दु:ख का चित्रण नहीं है, बल्कि यह दर्शकों को भावनात्मक और नैतिक रूप से समृद्ध करने का एक साधन है।
२. पाश्चात्य साहित्य-चिंतन:- निर्मला जैन, कुसुम बांठिया
३. आलोचक और आलोचना:- बच्चन सिंह
४. पश्चिम का काव्य विचार:- अजय तिवारी
५. काव्यशास्त्र-निरूपण:- डॉ. विजयकुमार
3 Comments